अहद-ए-पीरी ने हमें रंग दिखाए क्या क्या सर पे हो शाम तो बढ़ जाते हैं साए क्या क्या ठोकरें लगने लगीं ज़ोफ़-ए-बसारत के सबब देखिए ज़ोफ़-ए-समाअ'त भी दिखाए क्या क्या तर्क उल्फ़त की कभी और कभी तर्क मय की अब तो अहबाब भी देने लगे राय क्या क्या वाए नादानी-ए-दिल इस ने मोहब्बत कर के रंज-ओ-ग़म मोल लिए बैठे-बिठाए क्या क्या ख़ुद को रुस्वा किया हर राज़ छुपा कर उस का अपने सर ले लिए इल्ज़ाम पराए क्या क्या ऐश-ओ-इशरत से सदा काम जवानी में रहा शेर-ओ-नग़्मा से शब-ओ-रोज़ सजाए क्या क्या साया-ए-ज़ुल्फ़ कभी और कभी दामन की हवा उस के अल्ताफ़-ओ-करम याद न आए क्या क्या फ़िक्र-ए-उक़्बा से लरज़ते हैं अब आ'साब-ए-'तमीज़' देखिए फ़र्द-ए-अमल सामने लाए क्या क्या