अहल-ए-दिल जो भी बात कहते हैं कोई राज़-ए-हयात कहते हैं उन के ग़म से है जावेदाँ वर्ना ज़ीस्त को बे-सबात कहते हैं हाए वो दौर-ए-इश्क़ जब आँसू दास्तान-ए-हयात कहते हैं ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में जो गुज़रता है हम तो उस दिन को रात कहते हैं इश्क़ की इस्तिलाह में ग़म को इंक़लाब-ए-हयात कहते हैं जो भी हैं वाक़िफ़-ए-हक़ीक़त-ए-दिल दिल को ही काएनात कहते हैं लफ़्ज़-ओ-मा'नी में आ नहीं सकती वो नज़र से जो बात कहते हैं मर्द-ए-हक़ में तो मा-सिवा को भी परतव-ए-हुस्न-ए-ज़ात कहते हैं मुद्दतों ग़ौर करना पड़ता है उन से जब दिल की बात कहते हैं कार-गाह-ए-नुक़ूश-ए-इबरत को 'कैफ़' सब काएनात कहते हैं