अहल-ए-जहाँ के साथ वफ़ा या जफ़ा करूँ मेरी समझ में कुछ नहीं आता है क्या करूँ ये दर्द-ए-दिल तो हासिल-ए-उम्र-दराज़ है मैं इस को अपनी ज़ात से क्यूँ कर जुदा करूँ दुनिया यही करेगी तो दुनिया से पेशतर मजरूह क्यूँ न ख़ुद ही मैं अपनी अना करूँ दुनिया में कौन है जो नहीं है मिरे ख़िलाफ़ इक तुम ही रह गए हो तुम्हें भी ख़फ़ा करूँ हर ज़ाविए से ज़ीस्त ने रुस्वा किया मुझे किस रुख़ से अपनी ज़ात का अब सामना करूँ एहसान जो उठाए हैं औरों के वास्ते औरों पे हैं वो क़र्ज़ मगर मैं अदा करूँ आँखों को नींद की भी रिफ़ाक़त नहीं नसीब मैं शम्अ' तो नहीं कि सहर तक जला करूँ हसरत ही रह गई कि बहारों के दरमियाँ तेरे बग़ैर भी तो कभी ख़ुश रहा करूँ बेगानगी को छोड़ के फ़ितरत भी हँस पड़े आदम के नाम पर कोई ऐसी ख़ता करूँ जब कर्ब-ए-आगही में हूँ ऐ 'लैस' आज-कल इस कर्ब-ए-आगही से किसे आश्ना करूँ