अहमक़ नहीं कि समझें बुरा वक़्त टल गया कुछ रोज़ के लिए जो ये मौसम बदल गया यक-लख़्त हँसते लोग ये बरहम क्यूँ हो गए शायद मिरी ज़बान से कुछ सच निकल गया राज़ी थे हम तो जान भी देने के वास्ते कम-ज़र्फ़ ले के दिल ही हमारा मचल गया क्या बोलने के हक का उठाएगा फ़ाएदा जो भूक में ज़बान ही अपनी निगल गया माँगेगा जाएदाद में हिस्सा ये एक रोज़ फ़िलहाल चाहे ले के खिलौने बहल गया एहसानमंद चाहे हमारा न हो कोई पर हम गिरे तो सारा ज़माना सँभल गया काँटों पे एहतियात से चलता था आदमी इन चमचमाते फर्शों पे 'जानिब' फिसल गया