आइने में पस-ए-मंज़र का उभरना कैसा झील जैसी तिरी आँखों में ये झरना कैसा उम्र-भर साथ रहो तो कहीं महके आँगन किसी ख़ुश्बू की तरह छू के गुज़रना कैसा वो तो इक ख़्वाहिश-ए-नाकाम थी जो चीख़ पड़ी बे-सबब अपनी ही आवाज़ से डरना कैसा गर्द शीशों से हटाओ तो कोई बात बने अंधे आईनों के आगे ये सँवरना कैसा फेंक दो बार-ए-अलम कुछ तो सफ़र आसाँ हो बोझ लादे हुए दुनिया से गुज़रना कैसा ऐ मिरे शोर-ए-नफ़स बार-ए-समाअत से गुरेज़ नींद के वक़्त सदाओं का उभरना कैसा गोश-ए-उम्मीद हुए जबकि सदाओं के असीर फ़त्ह फिर कोह-ए-निदा का 'ज़िया' करना कैसा