ऐसा होने नहीं देता था मगर होने को है ज़िंदगी अब तो न जीने में बसर होने को है पर जो काटे गए जा फैले हवाओं में तमाम अपनी पर्वाज़ ब-अंदाज़-ए-दिगर होने को है वहशत-ए-दिल तुझे ले कर मैं कहाँ जाऊँ बता रहते रहते तो ये वीराना भी घर होने को है दिल से फिर खेल रही हैं वही ज़िद्दी यादें ज़र्रा ज़र्रा मिरा फिर ज़ेर-ओ-ज़बर होने को है शम्अ' की लौ की तरह जान ढली जाती है आज शायद अपनी शब-ए-ग़म की भी सहर होने को है सुरख़-रू ख़ून-ए-जिगर से ही हुआ करते हैं लोग क्या है 'बिल्क़ीस' अगर जाँ का ज़रर होने को है