ऐसा लगता है किसी गुम्बद से टकराई न थी वर्ना कब आवाज़ मेरी लौट कर आई न थी था तिरी क़ुर्बत की आँखों में हर इक नश्शा मगर नींद से जागी हुई यादों की अंगड़ाई न थी हम को अंधा कर गई थी एक गहरी रौशनी ज़ुल्मतों की ज़द में आ कर आँख पथराई न थी क़ैद था क्यूँ चाँद सदियों से हिसार-ए-अब्र में क्यूँ उजालों ने उसे पोशाक पहनाई न थी जल गया अपने ही अंदर की हरारत से बदन सूरजों ने हम पे कोई आग बरसाई न थी तेरे सीने में तिरा ख़ूँ बर्फ़ कैसे हो गया क्या तिरे अंदर हरारत की तवानाई न थी