ऐसा लगता है मुख़ालिफ़ है ख़ुदाई मेरी कोई करता ही नहीं खुल के बुराई मेरी मुझ में मदफ़ून बड़े शहर-ए-मआनी थे मगर दूर तक कर न सका वक़्त ख़ुदाई मेरी बे-सदा शहर था ख़ामोश थे गलियों के मकीं एक मुद्दत मुझे आवाज़ न आई मेरी ख़ैर-ख़्वाही का रहा यूँ तो सभी को दा'वा चाहता भी तो कोई दिल से भलाई मेरी शब की दहलीज़ पे क़ज़्ज़ाक़ ज़रूरत तो नहीं छीन लेता है जो दिन-भर की कमाई मेरी कुछ मिरे इल्म ने भी मुझ को फ़ज़ीलत बख़्शी फ़न से निस्बत ने भी तौक़ीर बढ़ाई मेरी मुझ को मुझ तक ही न महदूद समझना 'सैफ़ी' ला-मकाँ से भी परे तक है रसाई मेरी