ऐसा नहीं कोई कि शनासा कहें जिसे मिलता कहाँ है कोई हम अपना कहें जिसे इक मरकज़-ए-ख़याल है दुनिया कहें जिसे कोई नज़र तो आए कि तुम सा कहें जिसे साया भी भागता है जहाँ अपनी ज़ात से वो है सराब दश्त-ए-तमन्ना कहें जिसे ज़ुल्फ़-ए-दराज़ बन के उलझती रही मुदाम इक तार-ए-अंकबूत है दुनिया कहीं जिसे 'माहिर' वही न कहते हैं सब जिस को आदमी हैं ख़ूबियाँ ही क्या कि हम अच्छा कहें जिसे