ऐसे घर में रह रहा हूँ देख ले बे-शक कोई जिस के दरवाज़े की क़िस्मत में नहीं दस्तक कोई यूँ तो होने को सभी कुछ है मिरे दिल में मगर इस दुकाँ पर आज तक आया नहीं गाहक कोई वो ख़ुदा की खोज में ख़ुद आख़िरी हद तक गया ख़ुद को पाने की मगर कोशिश न की अनथक कोई बाग़ में कल रात फूलों की हवेली लुट गई चश्म-ए-शबनम से चुरा कर ले गया ठंडक कोई दे गया आँखों को फ़र्श-ए-राह बनने का सिला दे गया बीनाई को सौग़ात में दीमक कोई एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी मेरे जज़्बों में न दूल्हा बन सका अब तक कोई वो भी 'साजिद' था मिरे जज़्बों की चोरी में शरीक उस की जानिब क्यूँ नहीं उट्ठी निगाह-ए-शक कोई