ऐसे होता है गुमाँ आँखों से जैसे उठता हो धुआँ आँखों से कोई जमशेद का साग़र तो नहीं देख लूँ सारा जहाँ आँखों से अब कहाँ ताब-ए-नज़र है देखूँ कोई मक़्तल का समाँ आँखों से क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते क्यों हो साफ़ होता है बयाँ आँखों से ये तो एहसान-ए-ख़ुदावंदी है देख सकता हूँ जहाँ आँखों से