अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है यही धुआँ मिरे दीवार-ओ-दर से निकला था मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था ये अब जो सर हैं ख़मीदा कुलाह की ख़ातिर ये ऐब भी तो हम अहल-ए-हुनर से निकला था वो क़ैस अब जिसे मजनूँ पुकारते हैं 'फ़राज़' तिरी तरह कोई दीवाना घर से निकला था