अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई कि जैसे ज़ख़्म की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है कि आँख कह नहीं सकती सुनी-सुनाई हुई बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर यहाँ से शहर मिलेंगे अगर खुदाई हुई ख़बर नहीं है कि तू भी वहाँ मिले न मिले अगर कभी मिरे दिल तक मिरी रसाई हुई मैं आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हुआ हूँ 'सऊद' पड़ी है फ़स्ल-ए-मोहब्बत कटी-कटाई हुई