अजब मौजूदगी है जो कमी पर मुश्तमिल है किसी का शोर मेरी ख़ामुशी पर मुश्तमिल है अँधेरी सुब्ह वीराँ रात या शाम-ए-फ़सुर्दा मिरा हर लम्हा उन में से किसी पर मुश्तमिल है नहीं मिल पाती कोई भी हँसी मेरी हँसी में ये वाहिद रंज है जो रंज ही पर मुश्तमिल है चमक उठता है इक भूला हुआ चेहरा अचानक न जाने तीरगी किस रौशनी पर मुश्तमिल है सराब-ए-ख़्वाब देखूँ या उड़ाऊँ ख़ाक अपनी ये सहरा इक मकाँ और इक गली पर मुश्तमिल है वरक़ खुलते ही कितनी तितलियाँ उड़ती हैं 'शारिक़' अगरचे बाग़ इक सूखी कली पर मुश्तमिल है