अजब सदा ये नुमाइश में कल सुनाई दी किसी ने संग से तस्वीर को रिहाई दी सुनहरे हर्फ़ भी मिट्टी के भाव बेच दिए तुझे तो मैं ने नए ज़ेहन की कमाई दी बचा सकी न मुझे भीड़ चुप के क़ातिल से हज़ार शोर मचाया बहुत दुहाई दी वो शख़्स मर के भी अपनी जगह से हिल न सका कि इक ज़माने ने जुम्बिश तो इंतिहाई दी कभी वो टूट के बिखरा कभी वो जम्अ' हुआ ख़ुदा ने उस को अजब मो'जिज़ा-नुमाई दी