अज़ल से अपने ही होने के इंतिज़ार में हूँ नुमू-पज़ीर हूँ लेकिन तिरे हिसार में हूँ कहाँ पता था कि अपना ही पेश-ओ-पस हूँ मैं किसे ख़बर थी कि तन्हा खड़ा क़तार में हूँ तिरे वजूद की हर धूप छाँव है जिस में मैं रेज़ा-रेज़ा उसी ख़ाक-ए-रहगुज़ार में हूँ यहीं कहीं तिरी नज़रों से गिर के बिखरूँगा मैं शाख़-ए-सब्ज़ अभी मौसम-ए-बहार में हूँ सदा-ए-क़ब्र इधर भी कोई कि तेरे लिए मैं पा-ब-जौलाँ बहुत दश्त-ए-बे-कनार में हूँ फ़रार चाहूँ तो जो कुछ है सब गँवा बैठूँ कुछ इस तरह तिरी आवाज़ के हिसार में हूँ बता गया था पता बस यूँही हवाओं को कहाँ ख़बर थी कि मैं भी तिरे शुमार में हूँ अलग न देख बहुत ज़र्द ज़र्द फूलों से नज़र उठा कि मैं चारों तरफ़ बहार में हूँ मैं हर्फ़-हर्फ़ तुझे जिस्म-ओ-जाँ में ले जाऊँ कि रंग-रंग तिरी लौटती बहार में हूँ बिखर चुका है वो 'अजमल' सदाएँ दे के मुझे कि मैं असीर हवाओं के कार-ज़ार में हूँ