अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए शजर गिरा तो परिंदे तमाम शब रोए किसी का भी न चराग़ों की सम्त ध्यान गया शब-ए-नशात वो कब कब बुझे थे कब रोए हज़ार गिर्या के पहलू निकलने वाले हैं उसे कहो कि वो यूँही न बे-सबब रोए हमारे ज़ाद-ए-सफ़र में भी दर्द रक्खा गया सो हम भी टूट के रोए सफ़र में जब रोए किसी की आँख ही भीगी न सैल-ए-दर्द गया तुम्हारी याद में अब के बरस अजब रोए तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई मिरे चराग़ तो लगता था रोए अब रोए कुछ अपना दर्द ही 'तारिक़'-नईम ऐसा था बग़ैर मौसम-ए-गिर्या भी हम ग़ज़ब रोए