अजीब जंग-ओ-जिदाल हर पल है मेरे अंदर कि नूर-ओ-ज़ुल्मत का एक मक़्तल है मेरे अंदर उगे हैं मुझ में हज़ार-हा ख़ार-ज़ार पौदे फिर इस पे तुर्रा कि रूह मलमल है मेरे अंदर ये कैसी बे-मअ'नी ज़िंदगी हो के रह गई है न कुछ अधूरा न कुछ मुकम्मल है मेरे अंदर मैं जानता हूँ कि ख़त्म होगा न ये तअफ़्फ़ुन मगर लुटाऊँगा जितना संदल है मेरे अंदर समुंदरों में कहाँ तमव्वुज है ऐसा मुमकिन कि जो तलातुम है जैसी हलचल है मेरे अंदर बड़े-बड़ों को समझ रहा है जो तिफ़्ल-ए-मकतब 'नदीम' आख़िर वो कौन पागल है मेरे अंदर