अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर लहु चराग़ जलाती रही हथेली पर सुनेगा कौन मगर एहतिजाज ख़ुश्बू का कि साँप ज़हर छिड़कता रहा चमेली पर शब-ए-फ़िराक़ मिरी आँख को थकन से बचा कि नींद वार न कर दे तिरी सहेली पर वो बेवफ़ा था तो फिर इतना मेहरबाँ क्यूँ था बिछड़ के उस से मैं सोचूँ उसी पहेली पर जला न घर का अँधेरा चराग़ से 'मोहसिन' सितम न कर मिरी जाँ अपने यार बेली पर