अजीब लोग हैं गुल करके ज़िंदगी के चराग़ जलाए बैठे हैं अपने घरों में घी के चराग़ भटक रहे हैं अँधेरों में मेहर-ओ-माह-ओ-नुजूम हर एक सम्त फ़रोज़ाँ हैं तीरगी के चराग़ नज़र नज़र में दिए हसरतों के लर्ज़ां हैं क़दम क़दम पे हैं रक़्साँ फ़सुर्दगी के चराग़ चमन में ज़ाग़-ओ-ज़ग़न की बपा वो शोरिश है कि छिन गए हैं अनादिल से नग़्मगी के चराग़ भड़क उठी है दिलों में वो आतिश-ए-नफ़रत कि जल उठे हैं लबों तक पे तिश्नगी के चराग़ ये सोच लें कि उड़ाए हँसी न बाद-ए-ख़िज़ाँ करें न अहल-ए-चमन गुल शगुफ़्तगी के चराग़ उन्हीं के घर में अंधेरा है ख़ून से जिन के फ़रोग़-कश हैं शबिस्तान-ए-ख़्वाजगी के चराग़ मुहीत ख़ाना-ए-जाँ पर है अब्र-ए-महरूमी जलाओ ख़ून-ए-तमन्ना से ज़िंदगी के चराग़ उठी हैं आँधियाँ इबलीसियत की वो 'अतहर' लरज़ रहे हैं ख़ुदाई में बंदगी के चराग़