अज़िय्यतों को किसी तरह कम न कर पाया में अपने हाथ अभी तक क़लम न कर पाया हवाले लाख दलील एक भी न दे शायद नज़र में क्यूँ किसी मंज़र को ज़म न कर पाया है बे-तराश अभी दस्त-ए-ज़ेहन में इक नक़्श कि इस के रंग को मैं हम-क़लम न कर पाया है शर्म तिश्ना-लबी उस की जिस से बुझ जाती में इतना ख़ून-ए-जिगर क्यूँ बहम न कर पाया तही-समर मिरे दामन को ही ठहरना था मैं मौसमों के क़सीदे रक़म न कर पाया तरावतों से भरा लफ़्ज़ दर्स है जिस का इसी से ख़ुद को अभी तक वो कम न कर पाया सवाल-संग था सरज़द प था मिरा मंज़ूर मैं चुप रहा कि मैं ख़ुद पर सितम न कर पाया