क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है मौत आती है शब-ए-हिज्र न नींद आती है वो भी चुप बैठे हैं अग़्यार भी चुप मैं भी ख़मोश ऐसी सोहबत से तबीअ'त मिरी घबराती है क्यूँ न हो अपनी लगावट की नज़र पर नाज़ाँ जानते हो कि दिलों को ये लगा लाती है बज़्म-ए-इशरत कहीं होती है तो रो देता हूँ कोई गुज़री हुई सोहबत मुझे याद आती है