नाम 'अकबर' तो मिरा माँ की दुआ ने रक्खा हाँ भरम उस का मगर मेरे ख़ुदा ने रक्खा वो भी दिन था कि तिरे आने का पैग़ाम आया तब मिरे घर में क़दम बाद-ए-सबा ने रक्खा किस तरह लोगों ने माँगीं थीं दुआएँ उस की कुछ लिहाज़ इस का न बे-मेहर हवा ने रक्खा ऐसे हालात में इक रोज़ न जी सकते थे हम को ज़िंदा तिरे पैमान-ए-वफ़ा ने रक्खा इत्तिफ़ाक़ात के पीछे भी हैं अस्बाब-ओ-इलल इक न इक अपना सबब दस्त-ए-क़ज़ा ने रक्खा जिस ने रक्खा तिरी मिटती हुई क़द्रों का लिहाज़ कुछ ख़याल इस का नहीं तू ने ज़माने रक्खा सिर्फ़ 'अकबर' ही नहीं देख के तस्वीर हुआ सब को हैराँ तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा ने रक्खा