अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं मिरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं ये कैसी हवा-ए-तरक़्क़ी चली है दिए तो दिए दिल बुझे जा रहे हैं इलाही मिरे दोस्त हों ख़ैरियत से ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं बहिश्त-ए-तसव्वुर के जल्वे हैं मैं हूँ जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं क़यामत के आने में रिंदों को शक था जो देखा तो वाइ'ज़ चले आ रहे हैं बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा 'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं