अकेले को भी आती है हँसी क्या किसी की याद ने की गुदगुदी क्या नज़र आने लगे हर हाल में तुम हमें अब क्या अंधेरा रौशनी क्या ये कम-कम राब्ता भी ख़त्म समझूँ यही है आप का ख़त आख़िरी क्या बने जब तक न साँसों का तवाज़ुन नचाऊँ उँगलियों पर बाँसुरी क्या वकालत तेरा पेशा है तो 'बादल' करेगा झूट की भी पैरवी क्या