हम शो'ला-ब-दस्त इतनी मोहब्बत से जले हैं जो देखने वाले थे वो हसरत से जले हैं ख़ुशबू से जले हैं कभी सूरत से जले हैं बद-ख़्वाह हसद करने की आदत से जले हैं जल जाए जहाँ ख़ून नहीं खौलता उन का हम बर्फ़-ज़दा लोगों की फ़ितरत से जले हैं कब शो'लगी लौ देने से आई है कभी बाज़ ये हुस्न-ए-नज़र वाले इनायत से जले हैं इक आग के दरिया को बताया है चमन-ज़ार हम डूबने वालों की रिआ'यत से जले हैं किरदार पे आने ही नहीं दी है कभी आँच कुछ लोग मोहब्बत में महारत से जले हैं इस आग में राहत के भी सामान हैं 'जाज़िब' समझाएँ भी कैसे कि ज़रूरत से जले हैं