ऐ अब्र-ए-इल्तिफ़ात तिरा ए'तिबार फिर आँखों में फिर वो प्यास वही इंतिज़ार फिर रख्खूँ कहाँ पे पाँव बढ़ाऊँ किधर क़दम रख़्श-ए-ख़याल आज है बे-इख़्तियार फिर दस्त-ए-जुनूँ-ओ-पंजा-ए-वहशत चिहार-सम्त बे-बर्ग-ओ-बार होने लगी है बहार फिर पस्पाइयों ने गाड़ दिए दाँत पुश्त पर यूँ दामन-ए-ग़ुरूर हुआ तार तार फिर निश्तर तिरी ज़बाँ ही नहीं ख़ामशी भी है कुछ रह-गुज़ार-ए-रब्त हुई ख़ार-ज़ार फिर मुझ में कोई सवाल तिरे मा-सिवा नहीं मुझ में यही सवाल हुआ एक बार फिर