अक्स कुछ न बदलेगा आइनों को धोने से आज़री नहीं आती पत्थरों पे रोने से मसअला न सुलझेगा प्यास बुझ न पाएगी बे-हिसी के साग़र में आप को डुबोने से तोड़ दो हदें सारी ये भी तजरबा कर लो ज़ात और सिमटेगी बे-हिजाब होने से लब पे ज़ोम-ए-मय-ख़्वारी और क़दम बहकते हैं सिर्फ़ कासा-ए-मय में उँगलियाँ डुबोने से हर सदफ़ के सीने में गिर रहा है इक मोती दर्द-ओ-ग़म के मारों की कश्तियाँ डुबोने से ज़ख़्म रोज़ इक ताज़ा दे दिया करो वर्ना बे-दिली सी रहती है दर्द के न होने से हर लहू फ़ुग़ाँ देगा हर दिया धुआँ देगा दाग़ मिट नहीं सकते दामनों को धोने से कौन सी वो आतिश थी मेरे ख़ून में 'सालिम' हाथ जल गए उस के उँगलियाँ डुबोने से