अलम की बात से आज़ार-ए-जाँ से कुछ नहीं होता वो आलम है कि एहसास-ए-ज़ियाँ से कुछ नहीं होता वक़ार-ए-गुलसिताँ की पासदारी बात है वर्ना चमन के नाम पर हुस्न-ए-बयाँ से कुछ नहीं होता अमल की क़ुव्वत-ए-तस्ख़ीर से दुनिया बदलती है शिकायत-हा-ए-जौर-ए-आसमाँ से कुछ नहीं होता यक़ीं मोहकम अगर हो गर्दिश-ए-दौराँ बदल डाले गुमाँ कितना ही बढ़ जाए गुमाँ से कुछ नहीं होता नज़र सय्याद के हालात पर रखना ज़रूरी है फ़क़त तज़ईन-ए-शाख़-ए-आशियाँ से कुछ नहीं होता जहाँ हालात पर तन्क़ीद ही करना ज़रूरी हो वहाँ रानाई-ए-हुस्न-ए-बयाँ से कुछ नहीं होता जहाँ दार-ओ-रसन की बात मौज़ू-ए-सुख़न ठहरे वहाँ उल्फ़त की रंगीं दास्ताँ से कुछ नहीं होता वहाँ अक्सर कलाम-ए-नर्म-ओ-शीरीं ख़ूब होता है कि अक्सर जिस जगह तेग़-ओ-सिनाँ से कुछ नहीं होता ब-नाम-ए-इश्क़ जज़्ब-ए-जाँ-फ़रोशी की ज़रूरत है मुसलसल सजदा-हा-ए-आस्ताँ से कुछ नहीं होता मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इंसाँ पर कि जब तस्कीन-ए-दिल आराम-ए-जाँ से कुछ नहीं होता किसी भी तौर अब तस्कीन की सूरत नहीं बनती किसी भी मेहरबाँ ना-मेहरबाँ से कुछ नहीं होता नशेमन फूँक ही डाला 'क़मर' जब अपने हाथों से अब आती है तो अब बर्क़-ए-तपाँ से कुछ नहीं होता