अलम की हद है कहाँ बे-कसी कहाँ तक है हमारे ग़म में तुम्हारी ख़ुशी कहाँ तक है बजा कि फूल की दो रोज़ा ज़िंदगी होगी कली से कोई ये पूछे कली कहाँ तक है फ़रिश्ते सज्दा-ए-ताज़ीम पर हुए मजबूर मिरा नियाज़ मिरी बंदगी कहाँ तक है नज़र का क़स्द ही कब था तिरे जमाल की दीद ये देखना था फ़क़त रौशनी कहाँ तक है दरिंदगी का मुसलसल महाज़ है क़ाएम ये देखने के लिए आदमी कहाँ तक है तुम्हारे नाम से दुनिया मुझे पुकार उठी तुम्हारी ज़ात से वाबस्तगी कहाँ तक है नियाज़-मंदी को एहसास देखना ये है मिज़ाज-ए-हुस्न की आशुफ़्तगी कहाँ तक है