बा'द मुद्दत के खुला जौहर-ए-नायाब मिरा जो अँधेरे में था रौशन हुआ वो बाब मिरा मैं ज़मीं वालों की आँखों में भरा हूँ लेकिन आसमाँ वालों ने देखा है कोई ख़्वाब मिरा इत्र-अफ़्शानी-ए-क़ुर्बत से थी मामूर फ़ज़ा जज़्बा-ए-क़तरा-ए-ख़ूँ कब हुआ सैराब मिरा कितने दरियाओं पे था काली घटाओं का जुलूस एक इक बूँद का प्यासा रहा तालाब मिरा मुतमइन हो गए अहबाब मिरे ख़ुश है ज़मीं इक नई सम्त जो बेड़ा हुआ ग़र्क़ाब मिरा सब के होंटों पे गुलाबों का तबस्सुम था 'सबा' मुतमइन मैं हूँ कि हर ज़ख़्म है शादाब मिरा