अल्फ़ाज़ के पत्थर क्या फेंके गए पानी में तूफ़ान सा बरपा है दरिया-ए-मआ'नी में ख़ुशियों के फ़साने ही दोहराए नहीं जाते हैं रंज के छींटे भी घर घर की कहानी में जादू ही ग़ज़ब का था अक्स-ए-रुख़-ए-ज़ेबा का क्यूँ आग न लग जाती बहते हुए पानी में दोनों ही क़बीलों ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधे लौट आई वफ़ा फिर से हर दुश्मन-ए-जानी में तर्सील तमद्दुन की होती भी तो फिर कैसे अख़्लाक़ न होता गर तहज़ीब के बानी में मिसरे पे तिरे 'आरिफ़' मिस्रा जो हुआ चस्पाँ ख़ुशबू सी उतर आई हर ऊला-ओ-सानी में