है मुअ'म्मा मिरी मोहब्बत भी शुक्र के साथ है शिकायत भी दिल को प्यारी है जिस की नफ़रत भी क्या हो गर वो करे मोहब्बत भी दुश्मन-ए-ए'तिबार होती है बाज़ हालात में हक़ीक़त भी इसी मामूरे में बना ली है सादा-लौहों ने अपनी जन्नत भी इस मोहब्बत पे नाज़ क्या कीजे हो मिली जिस में कुछ मुरव्वत भी आग दिल की किसी तरह न बुझी पी के देखी मय-ए-मोहब्बत भी तेरे कूचे में जाएँ किस मुँह से खो चुके हम तिरी अमानत भी हो बसारत से क्या उमीद 'रज़ा' धोके देती है जब बसीरत भी