अमीर-ए-शहर की चौखट पे जा के लौट आया ग़रीब-ए-वक़्त अँगूठा दिखा के लौट आया लगा रहा था मैं बढ़ चढ़ के बोलियाँ लेकिन ख़रीदा कुछ नहीं क़ीमत बढ़ा के लौट आया कसर रही-सही कर देंगी आँधियाँ पूरी मैं उस दरख़्त को जड़ से हिला के लौट आया मैं चाँद छूने की ख़्वाहिश में घर से निकला था और अपनी पलकों पे तारे सजा के लौट आया बुझा दिया था जिसे सर-फिरी हवाओं ने मैं उस चराग़ को फिर से जला के लौट आया वो इब्तिदा-ए-सफ़र में ही खुल गया मुझ पर मैं उस के साथ ज़रा दूर जा के लौट आया 'कमाल' उस ने मिरे दिल का हाल पूछा था मैं उस को 'मीर' की ग़ज़लें सुना के लौट आया