अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे सुकूत ऐसा नहीं है जो कुछ सुनाई न दे जो सुनना चाहो तो बोल उट्ठेंगे अँधेरे भी न सुनना चाहो तो दिल की सदा सुनाई न दे जो देखना हो तो आईना-ख़ाना है ये सुकूत हो आँख बंद तो इक नक़्श भी दिखाई न दे ये रूहें इस लिए चेहरों से ख़ुद को ढाँपे हैं मिले ज़मीर तो इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दे कुछ ऐसे लोग भी तन्हा हुजूम में हैं छुपे कि ज़िंदगी उन्हें पहचान कर दुहाई न दे हूँ अपने-आप से भी अजनबी ज़माने के साथ अब इतनी सख़्त सज़ा दिल की आश्नाई न दे सभी के ज़ेहन हैं मक़रूज़ क्या क़दीम ओ जदीद ख़ुद अपना नक़्द-ए-दिल-ओ-जां कहीं दिखाई न दे बहुत है फ़ुर्सत-ए-दीवानगी की हसरत भी 'वहीद' वक़्त गर इज़्न-ए-ग़ज़ल-सराई न दे