अंधेरे घर की रिवायात तोड़ जाना है हमें चराग़ उजाले में छोड़ जाना है नहीं है मसरफ़-ए-जान और कुछ मगर ये है तमाम आलम-ए-इम्काँ झिंझोड़ जाना है वहीं से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की राह निकली है जहाँ से तुम ने मोहब्बत का मोड़ जाना है है ख़्वाहिशात से छुटना उतर तो यूँ समझो कि बस हिसार-ए-हवा ही तो तोड़ जाना है हमारी ख़ामुशी बे-वज्ह तो नहीं 'अफ़सर' इसी को ज़हर-ए-तकल्लुम को तोड़ जाना है