अनजाने लोगों को हर सू चलता फिरता देख रहा हूँ कैसी भीड़ है फिर भी ख़ुद को तन्हा तन्हा देख रहा हूँ दीवारों से रौज़न रौज़न क्या क्या मंज़र उभरे हैं सूरज को भी दूर उफ़ुक़ पर जलता बुझता देख रहा हूँ जिस को अपना रूप दिया और जिस के हर दम ख़्वाब बुने कब से मैं उस आने वाले कल का रस्ता देख रहा हूँ सुब्हों की पेशानी पर ये कैसी सियाही फैली है अपनी अना को हर लम्हे सूली पर चढ़ता देख रहा हूँ आईने में क्या देखूँ जब हर चेहरा आईना है उस का चेहरा देख रहा हूँ अपना चेहरा देख रहा हूँ