किताब-ए-इश्क़ के जो मो'तबर रिसाले हैं उन्हीं में हुस्न के कुछ मुस्तनद हवाले हैं ब-ज़ो'म-ए-जब्र तसर्रुफ़ में जिन के दुनिया थी वो आज रहम की तख़्ती गले में डाले हैं न जाने कौन सी आफ़त का पेश-ख़ेमा है ये बर्ग सब्ज़ हवाओं ने क्यूँ उछाले हैं ख़बर उड़ाओ कि पेशानी-ए-सियासत पर हम अपने फ़ाक़ों की तफ़्सील लिखने वाले हैं पनाह मुझ को मिली ऐसे शहर में 'अंजुम' जहाँ पे आज भी तहज़ीब के उजाले हैं