बराए-दिलकशी लफ़्ज़-ओ-मआ'नी माँग लेता है क़लम से रोज़ काग़ज़ इक कहानी माँग लेता है शब-ए-फ़ुर्क़त में जब दिल डूब जाता है उदासी में तिरे रंगीं तसव्वुर से जवानी माँग लेता है भुला देता है अज़्मत प्यास में अपनी समुंदर भी बढ़ा कर हाथ दरियाओं से पानी माँग लेता है चराग़-ए-रहगुज़र हूँ मैं हक़ीक़त है मगर ये भी कभी सूरज भी मुझ से ज़ौ-फ़िशानी माँग लेता है रहे ये बात भी पेश-ए-नज़र ज़िल्ल-ए-इलाही के फ़लक दे कर ज़मीं की हुक्मरानी माँग लेता है भरोसा कीजिए किस की अता पर ऐ 'कमाल-अनवर' ख़ुदा भी हम से वापस ज़िंदगानी माँग लेता है