अपने ही तले आई ज़मीनों से निकल कर आ जाता हूँ शाख़ों पे दफ़ीनों से निकल कर दरवाज़े थे कुछ और भी दरवाज़े के पीछे बरसों पे गई बात महीनों से निकल कर सो जाती है बस्ती तो मकाँ पिछली गली में तन्हा खड़ा रहता है मकीनों से निकल कर किस सुब्ह-ए-तमाशा का बचाया हुआ सज्दा रुख़ पर चला आता है जबीनों से निकल कर ऐसी कोई आसान है दीवानगी यारो आई भी तो आएगी क़रीनों से निकल कर वो और कोई अब्र है जो खुलता नहीं है सर पर जो खड़ा रहता है सीनों से निकल कर मुद्दत से मिरे रास्ते में आया हुआ है पत्थर सा कोई तेरे नगीनों से निकल कर इक रोज़ जो दीवार थी वो हम ने गिरा दी पानी में चले आए सफ़ीनों से निकल कर ये देख मिरा नख़्ल-ए-कुतुब-हा-ए-दरख़्शाँ जो फैल गया ख़ून पसीनों से निकल कर आ जाते हैं साहिल पे दिखाने हमें मुँह लोग तारीकी में डूबे हुए ज़ीनों से निकल कर इक देन है हम जैसों की आशुफ़्ता-सरी को थम रहता है आफ़ाक़ पे दीनों से निकल कर ज़ेरीं कहीं रहती है तपस्या से भरी लहर बुध और है अंदोह-नशीनों से निकल कर मिस्मार अजाइब जो हुआ जंग-ओ-जदल से मिट्टी के ज़रूफ़ आ गए मीनों से निकल कर हमराह असासों की कहाँ ढूँड सकेंगे आया न अगर साँप ख़ज़ीनों से निकल कर अतराफ़-ए-दर-ओ-बाम ही ले बैठेंगे मुझ को गर क़स्द-ए-चहारुम न हो तीनों से निकल कर फिर सामना होगा मिरा अपनी ही मशीं से आया भी जो बिल-फ़र्ज़ मशीनों से निकल कर दुनिया को पिरोएगा 'नवेद' एक लड़ी में आएगा कोई ख़ाक-नशीनों से निकल कर