अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं सच है शाएर भी हवा बाँधते हैं फिर सर-ए-दस्त मिरा ख़ूँ होगा फिर वो हाथों में हिना बाँधते हैं गठरी फूलों की वो हो जाती है जिन में वो अपनी क़बा बाँधते हैं अजी देखें दिल-ए-आशिक़ तो नहीं आप आँचल में ये क्या बाँधते हैं ऐ 'सख़ी' आज तो कुछ ख़ैर नहीं वो कमर हो के ख़फ़ा बाँधते हैं