अपने अशआर को रुस्वा सर-ए-बाज़ार करूँ कैसे मुमकिन है कि मैं मिदहत-ए-दरबार करूँ दिल में मक़्तूल की तस्वीर लिए फिरता हूँ और क़ातिल से अक़ीदत का भी इज़हार करूँ यही मंशूर-ए-मोहब्बत है कि वो पैकर-ए-ज़ुल्म जिस को नफ़रत से नवाज़े मैं उसे प्यार करूँ अब मिरे शहर की पहचान है इक वादा-शिकन शहरियत बदलूँ कि तारीख़ का इंकार करूँ रात भर जाग के तामीर करूँ क़सर-ए-उमीद सुब्ह-ए-तकमील से पहले उसे मिस्मार करूँ