अपना ही शिकवा अपना गिला है अहल-ए-वफ़ा को क्या हो गया है हम जैसे सरकश भी रो दिए हैं अब के कुछ ऐसा ग़म आ पड़ा है दिल का चमन है मुरझा न जाए ये आँसुओं से सींचा गया है हाँ फ़स्ल-ए-गुल में रिंदों को साक़ी अपना लहू भी पीना पड़ा है ये दर्द यूँ भी था जान-लेवा कुछ और भी अब के बढ़ता चला है बस एक वादा कम-बख़्त वो भी मर मर के जीना सिखला गया है जुर्म-ए-मोहब्बत मुझ तक ही रहता उन का भी दामन उलझा हुआ है इक उम्र गुज़री है राह तकते जीने की शायद ये भी सज़ा है दिल सर्द हो कर ही रह न जाए अब के कुछ ऐसी ठंडी हवा है