अपना होता न किसी चश्म-ए-दिगर में रहता और कुछ रोज़ जो मैं तेरी नज़र में रहता फ़ासला देख ज़रा रिज़्क़-ओ-मोहब्बत के बीच और ख़ुद सोच कि कब तक मैं सफ़र में रहता कोई अपनों के अलावा भी निभाता मिरा साथ कोई लहरों के अलावा भी भँवर में रहता अपनी उम्मीद तो सरहद पे ही दम तोड़ गई अब वो ईरान में रहता कि क़तर में रहता उस के जाते ही मोहब्बत को निकाला दिल से वर्ना ये साँप बहुत देर खंडर में रहता