अपना रफ़ीक़-ओ-आश्ना ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं रंज-ओ-मेहन में ग़म-ज़दा ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं पूछा जो मैं हकीम से इल्लत-ए-कुन-फ़काँ है कौन सोच के उस ने ये कहा ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं का'बे का शब को मैं जो जा हल्क़ा-ए-दर हिला दिया आई सदा ये ''अंदर आ ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं'' आरिफ़ अगर ब-चश्म-ए-ग़ौर आईना-ए-जहाँ के बीच देखे तो समझे रूनुमा ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं गरचे जहाँ है मा-सिवा ज़ात के उस की 'मुसहफ़ी' सोचिए फिर तो मा-सिवा ग़ैर-ए-ख़ुदा कोई नहीं