अपना तो ख़ैर ज़िक्र क्या कोई नहीं निगाह में उम्र तमाम हो गई छोटे से इक गुनाह में किस का ख़िराम-ए-नाज़ था कौन था ग़म की राह में नूर सा इक चमक उठा क़ल्ब-ए-शब-ए-सियाह में कौन समझ सके उसे रब्त-ए-निहाँ की बात है हुस्न की हर अदा मिली इश्क़ के इश्तिबाह में तेरी निगाह-ए-नीम-वा काम तो अपना कर गई कैफ़-ए-दवाम दे गई कुल्फ़त-ए-गाह-गाह में देखो चराग़-ए-आगही राह-ए-जुनूँ में बुझ गया अक़्ल के होश गुम हैं अब एक ही इंतिबाह में एक मक़ाम है जहाँ एक हैं अक्स-ओ-आइना इश्क़ को जा के देखिए हुस्न की जल्वा-गाह में देख रही है आज भी मेरी निगाह-ए-गर्म-ओ-तेज़ छुपने को छुप गए हो तुम पर्दा-ए-मेहर-ओ-माह में महफ़िल-ए-ज़ीस्त में 'सबा' होगा नज़र का हाल क्या आग सी जब भड़क उठी क़ल्ब-ए-जुनूँ-पनाह में