अपने अंदर उतर रहा हूँ मैं धीरे धीरे सुधर रहा हूँ मैं नूर-ओ-ज़ुल्मत में इम्तियाज़ नहीं इस कुएँ में उतर रहा हूँ मैं जिस को देखो चुरा रहा है निगाह किस गली से गुज़र रहा हूँ मैं ख़ुद को इक दिन समेटना भी है आज-कल तो बिखर रहा हूँ मैं छोड़ा अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़ जी रहा हूँ कि मर रहा हूँ मैं जानता हूँ मैं हर क़दम उस का मुद्दतों हम-सफ़र रहा हूँ मैं सारे चेहरे हैं ये तो अनजाने मेहमाँ किस के घर रहा हूँ मैं