अपने अंजाम से बे-ख़बर ज़िंदगी रात दिन कर रही है सफ़र ज़िंदगी इन दहकती चिताओं की आग़ोश में किस तरह हो सकेगी बसर ज़िंदगी आ के जाते हुए मंज़रों की तरह घटती जाती है शाम-ओ-सहर ज़िंदगी मौत तेरा बहुत हम पे एहसान है तुझ से पहली न थी मो'तबर ज़िंदगी बुग़्ज़-ओ-नफ़रत की बढ़ती हुई आग में जल रहे हैं उमीदों के घर ज़िंदगी छोड़ कर इस क़फ़स को किधर जाएँगे हो गई अब तो बे-बाल-ओ-पर ज़िंदगी हम भी 'सैलानी' भटका किए उम्र भर ले गई जब इधर से उधर ज़िंदगी