अपने होने का कोई साज़ नहीं देती है अब तो तंहाई भी आवाज़ नहीं देती है जाने ये कौन सी मंज़िल है शनासाई की ज़ात-ए-मुतलक़ कोई एजाज़ नहीं देती है अपनी उफ़्ताद तबीअत का गिला क्या हो कि जो ख़्वाहिशों को पर-ए-पर्वाज़ नहीं देती है साअत-ए-ख़ूबी गुज़र जाती है आते जाते पर ये तहरीक-ए-तग-ओ-ताज़ नहीं देती है जाने क्यूँ अपनी अना दहर से क़ुर्बत के लिए कोई परवाना-ए-आग़ाज़ नहीं देती है रात मेरे लिए गिनती है 'तराज़' अपने नुजूम मेरे होने का मगर राज़ नहीं देती है