अपनी आग में भुनती जाए बुनती जाए कफ़न अपना गोया इसी लिए छोड़ा है चिंगारी ने वतन अपना झोंके कुछ बे-जान हवा के आते हैं अपने-आप चले झूम उठते हैं चमन के पंखे उस को जान के फ़न अपना ख़ुद-रौ सब्ज़े छेड़ रहे हैं जंगल के क़ानून के राग कब तक बाग़ में पढ़वाएँगे ख़ुत्बा सर्व-ओ-समन अपना दरिया-दिल है साहिल मेरा मगर यहाँ हर सैल-ए-बला साइल है कि बढ़ा आता है फैलाए दामन अपना मिल तो जाए अपने भँवर को दरिया के चक्कर से नजात लेकिन आह अगर रह जाऊँ हो कर मैं हमा-तन अपना शम्अ की लौ क्या शौक़-ए-बक़ा में शम्अ को चाटे जाती है ख़ुद को तरसती रह जाती है रूह मिटा के बदन अपना कोई 'मुहिब' आज़ुर्दा क्यूँ हो मेरी तल्ख़-कलामी से अपनी ही जानिब रहता है अक्सर रू-ए-सुख़न अपना